Thursday, 10 May 2012

मंज़िल भी है, रस्ता भी है, मेरा हमसफ़र भी साथ है,
दिन के उजालों में भी क्यूँ फ़िर, लगता है अंधेरी रात है

क्यूँ महफ़िल में होकर भी, हम तन्हा से हो जाते हैं,
क्यूँ दुनिया के चेहरे सब, पराये से नजर तब आते हैं
...
ना गिला ना शिकवा ना, कोई शिकायत ही है किसी से,
फिर गुबार चहुँ ओर क्यूँ हैं, काले, अमावस की निशि से.

सरिता का निर्मल धार है, अविरल जो बहता रहता है,
सागर भी सामने है तो, भटक जाने का गुमां क्यूँ होता है

समझ पाये न अब तलक, ये ज़िन्दगी कैसी किताब है,
दिन के उजालों में भी अक्सर, लगता है अंधेरी रात है.